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  शख़्सियत

दिल भी न कर सका कभी तर्जुमानी अपनी
ख़लिश साँसों में आ आ कर बेबस तड़पती रही
अपने फ़रेबे मुसलसल का तज़करा होता रहा
गम़े ज़िन्दगी बस अपनी दास्तां अक्सर बुनती रही

नवेदे-सोज़े-जाँ ने जब कभी परचम लहराया
शिकस्तगी पल भर के लिए कहीं सो ही गई
किसे तो राबिता था मेरी बेचैन धड़कनों से कभी
ज़लज़लों की मारी ये धरती कहीं खो ही गई

ये तारीख़ अपनी जंजीरों से लिपटती रही बारहा
अहसास अपने सीने में ज़हर-सा बनता ही गया
नाचीज़ तमन्नाओं के तुफ़ैल बेसूद घड़ियों में
ये शख़्से नामुराद अपने ढंग में ढलता ही गया

कौन इसको पहचाने यही ज़िन्दगी की पहचान है
जुगनुओं की कसम इस तीरगी में भी जान है

१ अप्रैल २००५

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