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  दिल इक तन्हा मुसाफ़िर

मंज़िलें तो तय कीं कई बार
छू बाद फिर इक राहे-मैं पे आ गया
चंद कदम चला रुका
तजर्रसुस का भी अपना नशा है
तलाश इक हम सफ़र की मुद्दतों
लगा अब तो अकेले ही चलना है
तो दिल से पूछा
तो दिल ने कहा
मैं भी एक तन्हा मुसाफ़िर
दानिशमंदों से कैसा मुदावा
अल्फ़ाज़ सरकते रहते हैं
खामोशी की भी अपनी जुबाँ है
दिल का भी कुछ ऐसा पैमा है
सफ़र इक उमर का तो कट ही गया
बोझ ज़िंदगी का कैसा
चलने दो अब तो बेतमन्ना हो कर
रहने दो दिल को तन्हा मुसाफ़िर हो कर
कहीं खुद-ब-खुद ख़त्म हो जाएगी यह राह
कहीं चुपचाप ख़त्म हो जाएगा यह सफ़र।

३१ जुलाई २००९

 


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