फफूंद
बगीचे में बचे
सूखे ठूँठ
और
गर्म दोपहर के
बीच विद्यमान
बीता समय
कोई कौंध
धीरे-धीरे थमती
मिमियाते बकरों की
नियति जैसे
फूलों के खिलने का
अन-जिया वक़्त
शहतीर सा चुभता मन में
कहाँ रह गया मैं ?
फिल्मी अवार्ड
फैशन परेडों तक
पसरी लालामी में
मेरे भोग और
वासना का प्रतिफलन नहीं
न
सूखे हुए ठूँठ
और उड़ती धूल के बीच
उगी कौंपल
वह
मृत जैविक अंगाá पर
जमी भूरी फंगस
ही रही बस
२८ जून २०१० |