पतंग आकाश में
पतंग जैसा
उठ गया आकाश में
ढील दी ख़ूब
खुश हुआ मन
पतंगे और भी थीं
लहराती उतराती गगन में
झटके से खींचते-छोड़ते डोर
शातिर खिलाड़ी वे
थे आतुर लड़ाने को पेंच
लपेटना वापस
था जोखिम भरा
अनमना हो गया मन
आख़िर न अभ्यस्त था
दाँव-पेंच का
मंझा भी सूता नहीं था
मोम और काँच से
काट ही दे पतंग कोई
हो गया व्यग्र
चौकस दृष्टि, आशंकित
समेट ली डोर
लौट आई पतंग हाथों में
न उड़ सकी
उन्मुक्त वह
आकाश में
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