शब्द नहीं झरते
निर्झर बहते रहते
बात-बात में
शब्द नहीं अब
वो झरते हैं
लगता है बाँध दिया है
शब्दों को बहने से
रोक रहा है ये बंध
सूख जाएगा शब्दस्रोत ही
यों बाधित रहने से
वेग नहीं
तब उर्जा कैसे जन्मेगी
खाली की खाली
रह जाएगी
यह बंधी हुई घाटी
जलस्रोत नहीं
कि बढ़ जाएगा
बंधने पर
दुख है मिट्टी
अवसाद, अधैर्य चूना पत्थर है
ओ क्रूर नियति के संवाहक
क्या ऐसा भी करते हैं?
शब्द नहीं जल
कि बंध भरें
ये मन के बंधक हैं
मन ने इनको बाँधा है
बंधे हुए शब्दों से
सींचोगे कैसे
हरी-भरी वसुधा को
स्नेह ममता को?
निर्झर बहते रहते
बात-बात में
शब्द नहीं अब वो झरते हैं |