आषाढ़ बीतने पर
ऐसे भी दिन आएँगे
पता नहीं था
सूनी-सूनी दोपहरी में
सुधियों के जंगल घूमेंगे
ताल-तलैया, खेत-मड़ैया
बेरौनक, बिछड़े हुए समैया
सूनी-सूनी आँखों में
सपनों का बिखराव
पंछी अब बिरहा गाएँगे
पता नहीं था ऐसे भी दिन आएँगे
अमलतास पीले-पीले छितराए थे
चंपा धीमी-धीमी महक रही थी
सेमल, टेसू दमक रहे थे
अब तो बस
अंजुरी भर फूल भरे
गुलमोहर खड़ा है
बगनबेलिया का रंग निखरा है
अमराई की गंध खो गई
कोयल की मीठी
कूक नहीं
भौंरे भी अब क्या गाएँगे
पता नहीं था
ऐसे भी दिन आएँगे
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