युवमन
तप्त रेत के बीच पड़ी,
मरुथल में तपती गागर है।
लवणयुक्त जल से प्लावित,
चिरअतृप्त तृषामय सागर है।
बोझिल वारिद की उपलवृष्टि,
क्या इसकी प्यास बुझाएगी?
शत-शत नदियों की जलधारा,
क्या इसका लावण्य मिटाएगी।
स्वाति नक्षत्र सीपी को,
मुक्ता को लोभ दिखाता है,
चंदा को लखकर चकोर,
प्रियतम सुधि में खो जाता है।
न सीपी, न चकोर यह,
न रूप-गर्विता का याचक है,
स्वयं स्वाति हैं, स्वयं चंद्र हैं,
स्वप्नों की चातकि का चातक है।
हरहर कर सागर की लहरें,
प्रियतम तट को छूने आती हैं,
पर पल भर के स्पर्शमात्र से,
वे सब चूर-चूर हो जाती हैं।
सागर-तट सम युवमन सोचे,
कब ऐसी जीवंत लहर आएगी,
जो चूर-चूर हो फिर लिपटेगी,
संतृप्ति सुधा बरसा जाएगी।
छिन-छिन पल-पल शिखा छीजती,
क्या कभी शलभ की तपन घटी?
मर-मिटी गोपियाँ वृंदावन की,
क्या कभी कृष्ण की तृषा बुझी?
विचलित बादल का विद्युत्प्रकम्प यह
इसको क्या कोई जले मरे,
उद्दाम काम का मूर्तरूप यह,
कैसे रति इसको शांत करे?
१६ दिसंबर २००४
|