अनुभूति में
महेशचंद्र द्विवेदी
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अनस्तित्व का सत्यापन
शैशव अवस्था में दादी से आँगन में
कड़ुए तेल की मालिश कराते हुए
बड़ी भली लगी थी गौरैया की चीं चीं,
परंतु चौंक पड़ा था सुनकर
पास में सोते हुए कुत्ते की अकस्मात
निकली संशयपूर्ण भौं भौं।
वर्षा ऋतु के आगमन पर
रुई के फोहों सदृश निर्द्वंद उड़ते
श्वेत, श्याम, ललछौंहें बादल
मेरे नेत्रों को लुभाते थे, मन को सुहाते थे
एवं आकाश से पुष्प से झरते जलकण
मेरे कुँवारे मन को बहुत भाते थे।
अनजाने सुदूर से आते वायु के
झोंकों का स्पर्श करता था
मेरे अंतर्तम को पुलकित
उनके आने से उनके जाने तक
वर्षा की बौछार से बूँदों के रुकने तक
मेरा रोम रोम जीता था पल-पल।
परंतु गौरैया की वह चीं-चीं क्या
उस कृमि के लिये भी ऐसी ही सुहानी होगी
जिसे बनाती है वह अपना भोजन?
क्या वर्षा की मार नष्ट नहीं कर देगी
चींटियों के बिल,
निर्धनों का झोपड़ियों का जीवन?
मैने कभी नहीं देखा है ईश्वर को
ब़चाते हुए गौरैया की चोंच से कोई कृमि,
मेरे लिये सुखदायी दॄश्य, गंध एवं ध्वनि
कहाँ करते हैं ईश्वरेच्छा का ज्ञापन?
किसी निर्बल के लिये वही दुखदायी बन
कर देते हैं ईश्वर के अनस्तित्व का सत्यापन।
१५ दिसंबर २०१४ |