शापित-सा मन
मैं देखता हूँ शिशु अब भी
खिलखिलाते हैं,
भरते हैं किलकारी, मीठा-मीठा मुस्कराते हैं;
केवल मानव को प्रदत्त प्रकृति के वरदान को,
वे प्रतिपल जीते है, और हँसते हैं, हँसाते हैं।
चाँद तारों तक पहुँचने के
सपने संजोते हैं,
अदम्य इच्छा से उड़ने को आकुल होते हैं;
तय प्रपात की गर्जन सम निर्बाध मन से,
रोते हैं तो फूट-फूट कर खुल कर रोते हैं।
कली अब भी प्रस्फुटित होकर
पुष्प बन जाती है,
अंग-अंग में रंग भर नूतन आभा बिखराती है;
पुष्प अब भी निहारते हैं उपवन में मद मस्त नयन,
पवन संग सुरभित देह वल्लरि थिरक-थिरक जाती है।
दूज के चाँद पर पहले जैसी ही
आती है पूनम,
वय के साथ-साथ चपलता क्या होती है कम?
प्रेमी-प्रेयसियों के हृदय को बनाकर सिंहासन,
बढ़ाता है प्यार की चाह और वियोग की चुभन।
आज भी अथाह सागर के उदर में
प्रतिपल,
उष्ण-शीत स्रोतों के बहने से होती है हलचल,
प्रतिपल मचल-मचल उठती-गिरती है लहर-लहर,
और कभी झंझावात बन ढाती है कहर-कहर।
पर क्या हो गया है इस युग में
युवाओं को,
जो खिलखिलाते युवकों को नहीं देख पाता हूँ;
युवतियों के मुखारविंद पर मेकअप भले ही हो,
फिर भी स्थायी नैराश्य की झलक पा जाता हूँ।
प्रकाशहीन सुरंग में यदि फँसा
हो मानव मन,
तो वह शिशु सम रोना-हँसना भूल जाता है।
चहुंदिश स्वार्थ, असत्य और हिंसा को देख-सुन,
शापित-सा मन बचपन को कहाँ ढूँढ़ पाता है।
९ मई २००६
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