अनुभूति में
महेशचंद्र द्विवेदी
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तेरा यह रोम रोम
तेरा यह रोम रोम
फिरता,
सुख की खोज में व्योम व्योम
तूने कब अपने को, दूसरे के
दुःख में दुखी होते देखा है?
स्वयं के सुख का अंत ही
तेरे दुःख की सीमा रेखा है
सुख ढूँढ़ता है अणु अणु
तव देह का,
प्रातः-सायं, रवि-सोम
मानव इन्द्रियों को प्रकृति ने
चिर अतृप्त बनाया है,
तृप्ति तो बस क्षणिक है
एक स्वप्न, एक छाया है
मन है इन्द्रियों का दास,
इनकी तृप्ति हेतु
होता है होम होम
प्रिय के वियोग का दुःख
स्वसुख के अंत के कारण है
अन्यत्र सुख की प्राप्ति से
सब करते इसका निवारण हैं
वियोगी भी पीकर सोमरस
बोलता है
हरे कृष्ण, हरी ॐ
तू दूसरे की पीड़ा को
तद्जनित स्वकष्ट से नाप पाता है,
स्व-अंत याद न आये तो
श्मशान में भी मुस्कराता है
सुख हेतु निर्मित शरीर
क्यों खोजे
इसका विलोम?
तेरा यह रोम रोम
फिरता,
सुख की खोज में व्योम व्योम
२६ अक्तूबर २००९ |