अनुभूति में
महेशचंद्र द्विवेदी
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पंछी की परछाईं
धरती पर चलते हुए, धूप में टहलते हुए,
पंछी की परछाईं साथ साथ चलती है
जब तक जड़ से जुड़ा, नहीं नभ में उड़ा,
पंछी से जुड़ने को परछाईं मचलती है,
पंछी के उड़ते ही, धरती से बिछुड़ते ही,
प्रिया परछाईं की काया ढलने लगती है
प्रिय होता विमुख, तो होती विवर्ण मुख,
जन्मदात्री धूप में भी काया पिघलती है।
पंछी जब पहुंचे नभ, हो वहाँ सब सुलभ,
पर उसकी परछाईं पीछे बिछड़ जाती है
जहाँ जन्मी थी, जिस धूप में निखरी थी,
उसमे ही एक शून्य सम सिमट जाती है।
२६ अक्तूबर २००९
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