अनुभूति में
महेशचंद्र द्विवेदी
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अवसाद
उसका मन क्यों
रहता है शांति का प्यासा
क्यों उसमें प्रायः
भरी रहती है हताशा
क्यों वह जितना ही आनंद
और उत्साह को तरसता है
सबका प्यार और सम्मान
पाने को लरजता है
उतना ही छोटी छोटी
बातों पर है चोटिल हो जाता
फिर स्वयं तो रोता ही है
दूसरों को भी है रुलाता?
उसका मन क्यों
है एक मैदान ऊबड-खाबड़
जिसमें भरा रहता है प्रायः
झाड़ और झंखाड़
उगते रहते हैं
कहीं आक कहीं कैक्टस
आक जो होता है
कसैला और विषैला
कैक्टस जो होता है
कंटीला व नुकीला
उसका मन क्यों
है अनियंत्रित भड़कीला?
उसका मन क्यों
है यदा कदा ही रह पाता
शीतल, निर्मल, समतल
समरूप और सपाट
जिसपर शांति से उग सकें
दूब, कमल और वृक्ष विराट
जिस पर उड़ें
रंग-बिरंगी तितलियाँ
मंथर वायु संग
जहाँ बजें मंद मंद घंटियाँ
जिसमें नृत्य करें गोपियाँ
और बाँसुरी बजाये कान्हाँ रंगीला?
कभी उसे लगता है
कि यह स्वनिर्मित मकड़जाल है
अवसाद का न समुचित कारण
न कोई उचित काल है
उसने स्वयं ही
भूत में घटी किन्हीं तुच्छ घटनाओं का
राई का पहाड़ बना डाला है
और उन्हें रिसते नासूर सम
मन में बार बार पाला है
परंतु उसे अवसाद तब तक सतायेगा
जब तक यह तथ्य
उसके अंतर्मन में आत्मसात न हो जायेगा
१५ दिसंबर २०१४ |