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  प्रवासी चिंता

माँ आज व्याकुल है मेरा मन, चिंता तेरी सताती है।

तूने अपना सुख, अपना श्रम,
अपना स्वेद सघन देकर,
अपनी रातों की निद्रा,
अपने जीवन के क्षण-क्षण देकर,
मेरे सुख में अपने सुख,
दुख में अपने दुख बिसरा कर,
जीने की कला सिखाई थी,
उँगली मेरी पकड़-पकड़कर,
तेरा वह निश्छल निस्वार्थ प्रेम,
तेरी वह अथक लगन,
स्नेहपूर्ण नयनों की छवि, अब भी मन में आती है।
माँ आज व्याकुल है मेरा मन, चिंता तेरी सताती है।

माना मैंने ही की थी,
तुझसे सात समुंदर की दूरी,
इसे बनाये रखना अब,
बन गई हैं अपनी मजबूरी,
पर तू यह न समझना,
मेरी भक्ति घटी है तुझमें,
तू निशिदिन प्रतिपल,
रहती है मेरे मन मंदिर मे,
आ-आकर तू मेरे जाग्रत मन में
या कभी सपन में,
कभी बनती है सघन छाँव, कभी फुहार बरसाती है।
माँ आज व्याकुल है मेरा मन, चिंता तेरी सताती है।

तेरे सम अपनी, तेरे सम प्यारी,
मुझको मेरी मातृभूमि,
भवसागर की झंझा मे उसको,
बना न सका मैं कर्मभूमि,
उस मातृभूमि के ऊपर जब,
संकट के बादल घिरते हैं,
उसके ही जाये पाले पोसे,
विश्वासघात जब करते हैं,
पंजाब या कश्मीर की घाटी,
लहू बहाता भाई का भाई,
नसनस में रक्त उबलता है, फटने लगती यहछाती है
माँ आज व्याकुल है मेरा मन, चिंता तेरी सताती है।

चिता जलाये एक बार, चिंता पल पल सुलगाती है।
माँ आज व्याकुल है मेरा मन, चिंता तेरी सताती है।

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