जब जब आएगा सावन
जब से मानव का हुआ है आदि, जब तक
होगा अंत,
आते रहे हैं और आते रहेंगे, ग्रीष्म, शीत और वसंत;
पर जब जब धरा पर, उमड़ घुमड़ कर आएगा सावन,
मानव मन में तब तब, अवश्य जागेगा उसका बचपन।
आएगी पुरवाई, जो हर लेगी उसकी
ग्रीष्म की तपन,
बरसेंगे बादल और सोख लेंगे तृषित धरा की जलन,
फैलेगी सोंधी मिट्टी की महक, कुरेदेगी मानव का मन,
अवचेतन में छिपा, क्षण भर को अवश्य उभरेगा बचपन।
बिचरेंगे बादल कभी ऐसे, जैसे
माँझा से बँधी हो पतंग,
कभी बहते रहेंगे प्रशांत, तो कभी बजाएँगे घनघोर मृदंग;
आँखमिचौली खेलेंगे, सूरज की धूप और छाँव के संग,
इंद्रधनुष की सतरंगी छटा से, मोहेंगे मानव का अंग अंग।
नवजीवन से भर जाएँगे, घने और
हरे हरे वन-उपवन,
उगेंगी गुल्म-लतायें, लिपटकर करेंगी वृक्षों का आलिंगन;
बेला और चमेली के पुष्पों पर, देख तितलियों की थिरकन,
किसको नहीं याद आ जाएगा, उसका रंग-बिरंगा बचपन?
कूकेगी कोयल, और बढ़ाएगी
विरहिणी के हृदय की धड़कन,
खेतों और बागों में नाचेंगे मोर, लुभाएँगे मोरनी का मन;
और भाई की कलाई में, जब भी बाँधेगी राखी कोई बहन,
बचपन की कोमल स्मृतियाँ, उभारेगा सावन का रक्षाबंधन।
१६ सितंबर २००५
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