अनुभूति में
महेशचंद्र द्विवेदी
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वृत्तस्वरूप
संसार
यद्यपि शून्य अरूप है,
तथापि
मानव कल्पना में
वृत्त का सूक्ष्म रूप है,
कहते हैं कि
ब्रह्म निराकार है
साथ ही अनादि है
असीम है, कहीं न उसका पारावार है।
ऐसा हो सकता है
बस एक वृत्त
जिसमे कितनी ही गति से दौड़े
लौटकर वहीँ आता है हर बिन्दु।
कहाँ से आता है ब्रह्माण्ड
और कहाँ को जाता है
यह कोई नहीं जान पाता है
क्योंकि इसका पथ वृत्ताकार है।
महाविस्फोट के फलस्वरूप
बने जो असंख्य गृह, अनंत तारे
वे भी तो वृत्ताकार हैं
वृत्त में घूमते हैं,
वृत्त से बाहर निकलते ही
होकर ध्वंस
विलीन हो जाते हैं किसी अन्य वृत्त में।
एलेक्ट्रोन भी घूमते हैं
ऐटम में नुक्लिअस के चारों ओर
जैसे उनके जीवन का लक्ष्य है
साधे रहना केंद्र कि डोर।
जीवन पथ भी वृत्ताकार है
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर का अद्भुत संगम
इन्ही से बनता है शरीर
और अंत में इन्ही में समाता है।
फिर कतिपय रासायनिक प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप
पुनः जन्म लेता है मानव का प्रतिरूप।
मानव मन भी वृत्तस्वरूप है
इसीलिए असीम है,
अनादि है, अनंत है।
मनुष्य से ब्रह्म तक की दूरी
करता है निमिष मात्र में पूरी।
मन की सोच वृत्त में आवृत्त है
अतः प्रायः रहता निरर्थक में दत्तचित्त है।
आखिर यह है एक शून्य- वृत्त का परम सूक्ष्म स्वरुप।
मानव बना देता है इसे महावृत्ताकार
यद्यपि जानता है कि
शून्य से जन्मा है यह
हो जायेगा पुनः शून्याकार।
२६ अक्तूबर २००९ |