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ट्रेन की खिड़की
ट्रेन की खिड़की
और किताबी शब्दों के झरोखे से
गाँव के घरों
और पपड़िया गई उनकी
कच्ची दीवारों को देख
मेरा मन द्रवित हो उठता है
गलियों में फैली सड़ांध
कहीं गहरे तक बस जाती है
मेरे नथुनों में,
बेचैन-सा,
गाँव की हालत सुधारने का
दंभ लिए मैं
चल पड़ता हूँ
शहर से दूर
गाँव की ओर
लेकिन
गाँव और शहर की सीमा पर
पहुँचते ही
यह सड़ांध मेरे नथुनों से घुस कर
कोशिश करने लगती है
मेरे सीने के भीतर उतरने की
शहरी चकाचौंध की
अभ्यस्त मेरी आँखें
सामने फैले अंधकार को सह नहीं
पातीं
गाँव की हालत सुधारने
का मेरा समस्त उत्साह
तपेदिक के थूक की तरह
आकर अटक जाता है
गले में
कदम खुद-बखुद
मुड़ने लगते हैं
पीछे की ओर
अचानक, मेरा अहं
जकड़ देता है मेरे कदम
साथियों की प्रश्न चिह्न
सरीखी आँखें
कर जाती है, मुझे अन्दर तक कहीं
निर्वस्त्र
नहीं, अब मुमकिन नहीं पीछे लौटना
आखिर लोग क्या कहेंगे
क्या नहीं करेंगे वे अट्टाहास
मेरी "असफलता" पर
लेकिन तभी मेरी
शहरी बुद्धि
सुझाती है एक रास्ता,
क्यों न बना लूँ मैं
एक नया गाँव
यहीं, इसी जगह
शहर की सीमा पर, गाँव से थोड़ा दूर
एकदम स्वच्छ और सजीला, कर्मचारियों से भरा
कंटीले तारों से घिरा
ताकि उस पार, उधर से, उस
गाँव की दुर्गंध प्रवेश न कर पाए,
किसी भी तरह,
हाँ, यही ठीक है,
क्योंकि मुझ पर उँगलियाँ उठाने वाले
मेरे दोस्त, आखिरकार
मेरे कहने पर ही तो आएँगे यहाँ
मेरे इसी गाँव को असली गाँव समझ
देंगे मुझे मुबारकबाद, शायद कोई पुरस्कार भी समारोहपूर्वक
बजाएँगे तालियाँ
कितना रोमांचित हो उठता हूँ मैं,
लेकिन, तभी मेरा ज़मीर
उछाल देता है
एक तीखा सवाल
यह तो सरासर नाटक है?
लेकिन, बुद्धि तुरन्त पलटकर देती है जवाब
तो क्या हुआ मेरे दोस्त
ज़िन्दगी खुद-बखुद
क्या कम है
किसी नाटक से! |