पखवारे के हर दिन
पखवारे के हर दिन
रात के हर पल
बेचैन-सा भागता फिरता है
वह
इधर से उधर
उधर से इधर
तरह-तरह के रूप धर
चाहता है बना लेना
अपनी भी
कोई एक अलग पहचान
परन्तु
सूरज की चकाचौंध
चौधराहट
और बादलों के काले व्यापार
के बीच
उसकी कुछ चल नहीं पाती
एक दिन की बादशाहत
शेष,
बस अथक आँखमिचौनी
फिर भी
चन्द्रमा खेलता जा रहा है, लगातार
एक खेल,
लड़ रहा है
एक लम्बी लड़ाई
अपने अस्तित्व की।
रात के निरन्तर गहराते,
अंधियारे के बीच। |