बुढ़ापा
अनुभवों की कोख से
उग आए हैं सूनी आँखों के ईद-गिर्द
झुर्रियों के असंख्य जंगल
जिनकी घुमावदार पगड़ंडियों
में उलझकर कैद हो गई हैं
बीते दिनों की चपलताएँ
वर्तमान की क्षमताएँ
भविष्य सिमट आया है
चंद बेबस सपनों में
जिनमें प्रतिबिम्बित हैं
उन सभी अपनों के
बनते-बिगडते अक्स
जो अब पराए
हो चले हैं। |