पतझड़ी मौसम
पतझड़ी मौसम के
एक ही वार में
ढीली पड़ जाती है
वृक्ष के पत्ते की पकड़
पीछे छूट जाते हैं
बरसों के रिश्ते-नाते
चोट खाए,
अंधेरों में भटकते
निराश मन को, सहसा मिलता है
हवा के निश्छल झोंके का संग
उद्देश्यहीनता के पहलू में
चौंधिया जाती है
आशा की एक धुंधली किरण
जगाने लगती है अनायास
सफ़र को कुछ और लम्बा करने की
एक हल्की-सी लालसा
लेकिन, कहाँ तक भागेगा वह
धरती की चिरपरिचित देह गंध
खींचती है उसे अपनी ही ओर
हताशा के इन क्षणों में भी
वह हिम्मत नहीं छोड़ता
पकड़ लेता है धरती का साथ
मिटा देता है खुद को माटी
लेकर एक संकल्प
कि बन जाएगी वह जीवनीशक्ति
असंख्य हरित पत्तों को उगाने
के लिए। |