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दिवस मूर्खों का
दिवस मूर्खों का
और मनाते हैं बुद्धिमान
चलाते रहते हैं जश्न
साल दर साल
हर सुबह व्रत लेते हैं
ऊँघने का
हर शाम उठाते हैं जाम
जोड़-तोड़ का
खाते हैं कसमें
अंधा बन, अपनों को ही
रेवड़ियाँ बाँटने की
और, इस प्रकार
शुरू करते हैं हर बार की तरह
फिर एक नया क्रम, एक नया साल
जिसकी परिपाटी
अब पुरानी हो चली है
ठीक,
बाबा के हिलते दाँत की तरह। |