गाँव की बातें
भरपूर शहरी वातावरण में
गाँव की बातें
एक शगल है
दूसरों की पीठ ठोकने
अपनी, थपथपाने का
गोल मेजों के ईद-गिर्द
मच्छरों की तरह
भिनभिनाते उद्गार
गहन विचार,
भारी भरकम सिफ़ारिशें
सभी कुछ
उछल-उछल कर
गुम हो जाते हैं
दफ्तरों की फाइलों में
या फिर लाइब्रेरी की अलमारियों में
बन्द किताबों में
कुछ इस तरह
कि उनकी सुगंध
गाँव तो क्या
पड़ोस की उस दुकान तक भी
नहीं पहुँच नहीं पाती। |