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अनुभूति में शशिकान्त गीते की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
बसंत
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दोहों में-
असली मंजिल दूर है

गीतों में-
आसमान गुमसुम रहता है
इक राजा था, इक रानी थी
एक टिमटिम लौ
एक टुकड़ा धूप
कम्प्यूटर रोबोट
ताँगे वाला घोड़ा
दूर अभी मंजिल है
फूलों की घाटी मे
भैंस सुनती बाँसुरी
मन माँगे ठौर
महानगर
मुए केंचुए
रोटी से ऐटम-बम प्यारा
रूप रस गंधों वाले दिन
स्लेट लिखे शब्दों के
समय को नाथ!

संकलन में-
चंपा- चंपा कुछ हाइकु
गंगा- धार समय की
ममतामयी- अम्मा चली गई
         माँ के सपने
रक्षाबंधन- राखी धागा सूत का
वर्षा मंगल- बूँदों ने क्या छुआ देह को
हरसिंगार- पारिजात के फूल
         हाइकु
होली है- मस्ती के फाग

 

बसंत

मैंने बाल्कनी में खड़े होकर देखा
झूम रहे हैं पेड़- पौधे
खिलखिला रहे हैं गमले में फूल
बह रही है मनभावन शीतल हवा
तो आ गया ऋतुराज!
कल्पना की
इठलाती नदी
सितार बजाते झरने
और समाधी से सद्य जागे पहाड़ की
नथुनों से खींच ली
यथा संभव ताजी हवा
तभी याद आयी
पड़ोस में अकेले रहने वाले युवक की
सोया पड़ा होगा अब तक
यह युवा पीढ़ी भी न
इसीलिए वंचित है संस्कृति से, संस्कारों से,
प्रकृति के मोहक स्पर्श से
पेड़- पौधों का नाम भी
नहीं बता सकते ठीक से
दरवाजा खटखटाया तो
खोला उसने आँख मलते
और पूछा- "क्या हुआ अंकल?"
"देखो! आ गया बसंत!"
"बसंत! कहाँ? नहीं,
बसंत तो कल ही निकला है सहारनपुर।
उसकी माँ मर गई है।"
"अरे भाई! ऋतुराज बसंत!"
"आने दो अंकल। रात पाली कर के
लौटा हूँ सुबह ही।
और दो बजे फिर करनी है
म्युचुअल ड्यूटी
उसी बसंत की।"

१ मई २०२२

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