असली
मंजिल दूर है
असली मंजिल दूर
है, अब तो मानुष चेत।
मूँगे-मोती के लिये, छोड़ छानना रेत।
गहरा सागर, आसमाँ, हिमगिरि- सा तू दीख।
पर मन रखना काँच-सा, नदियों से भी सीख।
बहुत कठिन है तैरना, धारा के विपरीत।
कूडा़ बहता धार में, तू धारा को जीत।
अपनी केंचुल छोड़ कर, सरका काला सर्प।
उजला अवसर देख कर, ज्यों ओछे का दर्प।
ईर्ष्या का मकडा़ बडा़, फाँसे मानुष जाल।
हड्डी तक चूसे मुआ, रहने भर दे खाल।
१२ मई २०१४