सारी रात झरे आँगन में
पारिजात के फूल
महके प्राण-प्रणव, जागे हैं
अनगिन सुप्त शिवाले
कई अबूझी रही सुरंगें
फैले भोर उजाले
दीप-दान करती सुहागिनें
द्वार नदी के कूल
वन-प्रांतर में मृग-शावक-दल
भरने लगा कुलाँचें
बिना मेघ, नभ के जादू से
मन-मयूर भी नाचे
झूम-झूम कर पेड़ों ने, है
झाडी़ लिपटी धूल
मन-भावन संदेशे लाए
हैं पाखी सुदूर के
अंतरयुग्मित हुई दिशाएँ
स्वर उभरे संतूर के
दूब गलीचे बिछे, हटे हैं
यात्रा-पथ के शूल
- शशिकांत गीते
१८ जून २०१२
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