मौन विदुर से
बैठे हम भी मौन विदुर से
सूने पड़े हुए मन्दिर से
कौन बुहारे हमको फिर से
बिन तुलसी के ज्यों आँगन
खाली गल्ले जैसे मन
बीत रहे बस, रीत रहे
कौन भरे अब इनको फिर से
ठिये निठल्लों के बन बैठे
गुलशन सूखे, कैसे ऐंठें
नहीं दूर तक बादल कोई
मोर आस का कैसे थिरके
ये अन्धा तो वो बहरा है
सन्नाटा फैला गहरा है
अपने प्रण को पकड़े भीष्म
बैठे हम भी मौन विदुर से
धुँधली पड़ीं ऋचाएँ कुछ
राग विलम्बित गाएँ कुछ
ताल समय की लेकिन द्रुत
पकड़े किसको कौन किधर से
१ अक्टूबर २०२३२३ फरवरी २०१५
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