यों ही
सुबह
जब देखी
ओस से तर ब तर
पंखुड़ियाँ
उफन आया आँखों के सामने
तुम्हारी पलकों में ठहरा
एक कतरा समन्दर
अन्तस: में टँगी रही
रोटी की चिन्ताएँ
दोपहर भर
साँझ
चाहकर भी आँख नहीं मिला पाया
सूरज
मेरी बुढ़ाती आस से
रात-
बेशर्म चाँद ताकता रहा
मेरी उदासी को
तारे बतियाते रहे
रिश्तों की बारीकियाँ
फिर सुबह हो गई
दिन यों ही गुजरते रहे |