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घाटों के ना घर
के साहब
घाटों के ना घर के साहब
हैं फिर आप किधर के साहब
पंछी को उड़ने छोड़ेंगे
उसके पंख कतर के साहब
रहजन ही रहजन हैं उस पर
हम जिस राहगुज़र के साहब
गाँव कहाँ पहचानेगा अब
हम तो हुए शहर के साहब
खोल सभी ने पहन रखे हैं
अपने अपने डर के साहब
दाग़, झुर्रियाँ चेहरे पर ये
सब हैं असर उमर के साहब
नाम आपके साथ छपा था
हम थे कहाँ ख़बर के साहब
सागर तक पहुँचेंगे कैसे
हम तो सिर्फ़ नहर के साहब
सड़कों पर सोते हम भूखे
देखो ज़रा ठहर के साहब
दौर ख़िजाँ का बीतेगा भी
सपने हरे शज़र के साहब
२९ जून २०१५
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