अमलतास के गाछ
और ये सोना सोना धूप
चटक सुनहरी चादर झीनी
सूरज के करघे पर बीनी
आसमान तक किरणें काते
मौसम ले कपास की पूनी
फैला कड़क उजास
चमकती मरकत मणि-सी दूब
अमलतास के गाछ
और ये सोना सोना धूप
दिन फिर अपनी राह चलेगा
धीरे धीरे दिवस ढलेगा
पीपल के नीचे अपनों संग
बतियाई का दौर चलेगा
फिर पनघट पर भीड़
उफनते शीतल जल के कूप
अमलतास के गाछ
और ये सोना सोना धूप
सन्नाटे से भरी दुपहरी
घाम घूमती नगरी नगरी
झोपड़ के पिछवाड़े गंगा
चरा रहा है गैया बकरी
मन सावन की आस
और यह पल पल छँटती ऊब
अमलतास के गाछ
और ये सोना सोना धूप
- पूर्णिमा वर्मन