|
धूप बढ़े धरती पर |
|
माटी के कण जीवन के क्षण,
झूठा ये संसार है
जिसको खोजूँ उसे न पाऊँ, ऐसा ही क्यों प्यार है?
आँखों में लेकर फिरती हूँ
आँसुओ की गगरी
चुनरी में थी बाँधी मैंने
यादों की मिसरी
धूप बढ़े धरती पर ज्यों-ज्यों, आँखों में जलधार है
जिसको खोजूँ उसे न पाऊँ, ऐसा ही क्यों प्यार है?
सोना चाँदी हीरा मोती,
तू ही जीवन की ज्योति
पलकें झपतीं पलकें उठतीं
यों ही हैं दिन राती होती
जाग रहे हैं इस तट हम, सो जाएँ परली पार है
जिसको खोजूँ उसे न पाऊँ ऐसा ही क्यों प्यार है?
- गीतिका वेदिका
१ मई २०२१ |
|
|
|
|