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        सूरज से जल की चाहत

 

सूरज से की जल की चाहत
कैसी हमसे भूल हो गई
आशाओं की दूब झुलसकर
धरती की पग धूल हो गई

हम बसंत का सपना लेकर
दफ्तर-दफ्तर घूम रहे हैं
मई-जून भी पीछे-पीछे
थामे हंटर घूम रहे हैं
दर्द बढ़ाने में तन मन का,
आँधी भी मशगूल हो गई

जैसे आँसू हों सड़कों के
तारकोल पानी सा पिघला
जब चलता है चाबुक लू का,
लगता है जैसे दम निकला
मजदूरों की फटी बिवाई
किस्मत का दिक्शूल हो गई

ऊपर कहीं-कहीं हरियाली
भीतर ज्वालामुखी भरा है
खुद में मगन गगन क्या समझे
सहती कितना ताप धरा है
हृष्ट पुष्ट सुरभित वसुंधरा
सूखा हुआ बबूल हो गई

वे कहते हैं गाँव नगर की
हर बस्ती में नल आएगा
सरिता का तट सिमट रहा है,
कैसे इसमें जल आएगा?
पर्वत से बहती जलधारा,
बस सेमल का फूल हो गई

- बसंत कुमार शर्मा
१ मई २०२१

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