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        सूरज मत बरसाओ आग

 

सूरज
मत बरसाओ आग

अग्नि बाण से बेध रहे हो
तुम भोले फूलों को
सहमी-सहमी नदी सिमट कर
छोड़ रही कूलों को

उलटी पड़ी नाव भूल कर
लहरों वाले राग

गिरी धराशायी हो हिरनी
कब से भाग रही थी
नीर भरे थे नयन विकल हो
छाया माँग रही थी

अंधा हुआ स्वार्थ में मानव
काट रहा वन-बाग

- डॉ मधु प्रधान
१ मई २०२१

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