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पंख कतरने में1 |
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पंख कतरने
में
बहेलिये ने जल्दी की है
शंका व्यापी मन में
पंछी उड़ न कहीं जाए
रहे चाकरी में हाजिर
रूखा-सूखा खाए
मन को मार,
समय आने पर
हम जैसा बोले
परदे के पीछे का, हर्गिज
भेद नहीं खोले
आदिम होने की मुराद
यों, पूरी कर ली है
यह जंगल है, आज्ञा
चलती यहाँ शिकारी की
नीलामी हर रोज
परिन्दों की लाचारी की
वन के इन बाशिन्दों की भी
क्या अपनी मर्जी
कूड़ेदान पहुँच जाती
अक्सर इनकी अर्जी
यहाँ न कोई नियम
बाहुबल की ही चलती है
- प्रो.
विद्यानंदन राजीव
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इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त
में-
हाइकु में-
पुनर्पाठ
में-
पिछले सप्ताह
१२ सितंबर २०११
हिंदी दिवस विशेषांक
में
गीतों में-
कल्पना रामानी,
शशि पाधा,
कुंवर शिवप्रताप सिंह,
डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर',-नीलकमल वैष्णव-'अनिश,-सावित्री तिवारी आजमी,
भावना कुंअर,
तुकाराम वर्मा,
रतनचंद
रत्नेश दोहों में-
आचार्य संजीव सलिल,
रघुविन्द्र यादव अंजुमन में-
रविकांत अनमोल,
हरिहर झा छंदमुक्त में-आशा मोर,
कमला
निखुर्पा,
दिविक रमेश,
भावना सक्सेना क्षणिकाओं में-
रचना श्रीवास्तव,
हास्य व्यंग्य में-
विनोद पाराशर, कुंडलियों में-
नवीन
चतुर्वेदी और मुक्तक में-
आशुतोष
कुमार झा
अन्य पुराने अंक
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