संस्कृत है वटवृक्ष राष्ट्र की फैली सरल जटाएँ
असमी, उड़िया, गुजराती औ मलयालम भाषाएँ
तमिल, तेलुगू, कन्नड़ की सुंदर-सी शाखाएँ
सब में मधु घोला है सारी अमृत ही बरसाएँ।
इनको छोड़ पराई माई कैसे गले लगाएँ
अपनी भाषा पढ़ें, लिखेँ औ अपनी ही अपनाएँ।
जहाँ किसी ने अपनी माँ का आदर नहीं किया है
कहो कहाँ पर गरल अयश का उसने नहीं पिया है
गौरव मिलता उसी वीर को जिसने माँ का मान किया
माँ की खातिर खुद को जिसने हँस-हँस के कुर्बान किया
उस माँ को ठुकराकर कैसे गीत और के गाएँ?
हिदी बोलें पढ़ें, लिखें सब हिंदी को अपनाएँ।
अपनी आज़ादी की खातिर अपनी ही भाषाएँ
लड़ने वाले वीरों के हित करती रहीं दुआएँ
और बाँचती रहीं सदा ही उनकी अमर कथाएँ
अंग्रेज़ी ने कब आँकी हैं जन-मन की पीड़ाएँ
फिर क्यों इतनी ममता उससे ,क्योंकर मोह दिखाएँ ?
हिदी बोलें पढ़ें ,लिखें सब हिंदी को अपनाएँ।
अपनी सरिता का जल पीते ,अपना अन्न उगाते
अपनी धरती का हर कोना फ़सलों से लहराते
अपनी भाषाएँ हैं अपनी परम पुनीत ऋचाएँ
अपनेपन की हो सकती हैं इनसे ही आशाएँ
अब तो और नहीं इंग्लिश की फैलें जटिल लताएँ।
हिदी बोलें पढ़ें ,लिखें सब हिंदी को अपनाएँ।