अनुभूति में ऋचा शर्मा
की रचनाएँ-
छंदमुक्त
में-
अनन्त यात्रा
एक फुसफुसाहट
दीवार और दरवाज़ा
भय
खाली आँखें
मेरे सपने
मुझे लगता है
रोज़ नयी शुरुआत
सुनो पद्मा
स्वर मेरा
सुन रानी सुन
हर बात नयी
संकलन में-
ज्योतिपर्व–
दादी माँ का संदेशा
दिये जलाओ–
मुझे भी है दिवाली मनानी
हे कमला
|
|
अनन्त
यात्रा
आँखों के आगे का सपना जब झूठ में बदलने लगता है
रंगत फीकी हो जाती है पन्ना भी फटने लगता है
काली सियाही पहले नीली फिर हरी सी हो जाती है
धुँधले अक्षर पहले फीके बाद फैलने लगते हैं
मुश्किल हो जाता है उनका पढ़ना
कोशिश कितनी भी कर लो
जब वक्त गुजरने पर आता
संभव ना हो सकता उसका रुकना
जैसे ना कोई रोक सके
मुठ्ठी से रेत का गिरना
जितना रोकोगे मुश्किल होगी
बाँधोगे बँधन हो न सकेगा
जाने दो जिसको जाना है
जितना है वक्त बिताना है
जो गुजरे सुख से गुजरे
कहना सुनना शिक़वे करना भला कभी ना लगता है
जितनी जिसको सौंपी जाए भुगता लो पूरी कर लो
सज़ा के पूरे होने पर ही स्वातंत्र्य का सूरज उगता है
मन मयूर नृत्य कर उठता है
मुँदे नेत्र खुल पाते हैं
अलसाई ठहराई भग जाती है
प्रत्यक्ष सुवासित हो उठता है
आगे और आगे का सूझ पड़ता है
ठहरा और थका पथिक
उठ कर अँगड़ाई लेकर
अनजानी अनचीन्ही यात्रा को प्रस्तुत होता है
ना ख़ुद वो फिर रुकता है
ना रोक उसे कोई सकता है
जब चल दे कोई तोड़ बंधनों को
भूल बिसार अपने दूजों को
कोई बाधा विघ्न
कर संचित साहस संपूर्ण अपना
मंजिल पर उसकी आमद को
थाम कभी ना पाया है
रोक कभी ना पाया है
वह पहुँच के अपनी मंजिल को
मन मग्न बिसरा कर तन को
फिर जैसे देखे हों काले बादल उसने
उस मन आए मयूर सा खिल–खिल कर
स्पंदित हो हो कर
संपूर्ण समग्र निवेदन कर
अणु में परमाणु सँजोता सा
मन पूर्ण प्रार्थना करता है
उबरा हूँ छूटा हूँ तुम तक आ पहुँचा हूँ
सह कर कितनी वेदना कितने आर्द्र स्वर
तोड़ झिंझोड़ कितने बंधन
छोड़ कितनी रोती आँखें
व्यग्र व्याकुल कितने मन
आतुर थे जिनके बँधन मेरे लिए
लिए माया मोह की जंजीरें अपनी
मेरे बिन जिनके थम जाते थे कई काम
और मुझ पर बनता था दायित्व
उनको पूरा करने का
कर्तव्य थे वो मेरे दायित्व थे वो मेरे
फिर भी उनको बीच मझधार छोड़
बस एक बुलावे पर तुम्हारे
जान कर सत्य इस चराचर जगत का
मिथ्या है जगत सत्य तुम हो
मेरा एकमेव लक्ष्य तुम हो
आया हूँ
निःसंकोच निर्विकार असंलग्न उनसे
सौंपने तुम्हें तुम्हारी ही अमानत
देने तुमको तुम्हारा प्राप्य
ये जीवन मेरा
जो है तुम्हारा ही दिया
ले लो इसको
मुक्त कर दो मुझको
ताकि रह सकूँ सदा तुम्हारे पास
हो कर तुम सा
तुम में समाहित होकर
ना बच पाए मुझ में कुछ भी अपना
पा जाऊँ सम्पूर्ण शाश्वत सत्य को
तुम्हें ईश्वर तुझको भगवन
तुझ आदि अनादि अनन्त ब्रह्म को
पहुँचूँ अपने सुध्येय तक
और हो जाए संपूर्ण मेरी
निरन्तर यात्रा
यह अनन्त यात्रा
होने दो संपूर्ण जगती के ईश
यह मेरी अनन्त यात्रा
यह मेरी अनन्त यात्रा
|