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दीपावली महोत्सव
२००४
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दीप जलते रहे, तारे हँसते रहे,
शशि न जाने कहाँ खो गया।
गगन मुस्काराया धरा जगमगाई,
अन्धेरा न जाने कहाँ खो गया।
न ज्योति न कुमकुम न पूजा की थाली,
नयन हैं सजलतम, हूँ मैं हाथ खाली
कैसे करूँ माँ पूजा तुम्हारी,
साहस न जाने कहाँ खो गया।
अभिशप्त तिमिर भी हुआ है पराजित,
छुप गया दीप ज्योति में अंतर्निहित
क्यों मन का दीपक धुंधला रहा है,
ज्ञान न जाने कहाँ खो गया।
दीपावली और बचपन की यादें,
कभी तो हँसाएँ कभी ये रुला दें
तुझे ढूँढता हूँ ये सपने अधूरे,
बचपन न जाने कहाँ खो गया।
जीवन में हैं पंच तत्वों की रंगत,
छोड़ी नहीं पंच शत्रु की संगत
ज्ञान–कवच का वरदान दो माँ,
पथ में न जाने कहाँ खो गया।
—महावीर शर्मा
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दिवाला
किसी की
दिवाली, किसी
का दिवाला
मित्रों है
सब पैसे का
बोल–बाला
पटाखों को
ज्यों आग दी
मंत्री जी
ने,
तो आवाज आई
"घुटाला–घुटाला"
—सत्य प्रकाश
ताम्रकार
'सत्य'
हे कमला
हे कमला तुम
अमला बनकर
राग द्वेष
मिटाती आओ
बढ़े प्रेम का
मान
घटे ईर्ष्या
का आह्वान
कुछ ऐसा
मंत्र सुनाती
आओ
हे कमला . .
.
हे कमला तुम
सफलता बनकर
धन धान्य
लुटाती आओ
घट पूरे हों
जाना और
जनार्दन के
मुस्कुराते
भंडार
खिलखिलाते
खलिहान
का वरदान
सजाते आओ
हे कमला . .
.
हे कमला दो
वर कुछ ऐसा
मिटे श्राप
राका से तम
का
मिटे वो मन
से पाप हमारा
इन जलते
नन्हें दीपों
में
शिव संघर्ष
सृजित कर जाओ
हे कमला . .
.
हे कमला तुम
जलधिनंदिनी
उपजीं देव
दानव संघर्ष
से
पाए विष–अमृत
सम दो भाई
भलों से लगन
बुरों का
दालन
इन को इंगित
करती जाओ
हे कमला . .
.
—ऋचा शर्मा
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