माटी का दीपक,
साँसों ने जीवन-बाती बाला,
दिया किसी ने स्नेह,
किसी ने ओजमुखी उजियाला।
जड़ चेतन, सबकी सहकृति से
जलन ज्योति ने पा ली,
और आँख का दिया जला
ले कर कर की उजियाली।
घूँघट खोल अँधेरी दुलहिन का
रहस्य रस लूटा,
बचा न कोई रंध्र तिमिर का
विभा-बिंब जब फूटा।
लेकिन रहा दीप के नीचे
का दर-दरपन काला,
मिला न अब तक पिया मिलन का
दिया जलाने वाला।
माँग रहा मैं राम राज की
खुशी और खुशहाली
मूक बने लौ, दर दर वितरित
हो द्युति की दीवाली!
बढ़ी विषमताओं से लड़कर,
ऐसा शर संधानो,
बिंधे लक्ष्य इस बार वक्ष तक,
तो प्रत्यंचा तानो।
बढ़ो एक मुख! दश-मुख ले
रिपु रचना को छलता है,
अंत समय का अरि का पौरुष
और अधिक खलता है।
मिली अशोक-वाटिका!
लेकिन शोक ग्रसित सीता है,
शंकित संगर से भविष्य से
अब भी भय-भीता है।
और भारत रत हैं आगत के
स्वागत में, कृश-काया,
आया 'राम-राज्य', कुछ ऐसा
रंग न मुख पर छाया।
- शिव सिंह 'सरोज'
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