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अनुभूति में ऋचा शर्मा की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अनन्त यात्रा
एक फुसफुसाहट
दीवार और दरवाज़ा
भय
खाली आँखें
मेरे सपने
मुझे लगता है
रोज़ नयी शुरुआत
सुनो पद्मा
स्वर मेरा
सुन रानी सुन
हर बात नयी


संकलन में-
ज्योतिपर्व– दादी माँ का संदेशा
दिये जलाओ– मुझे भी है दिवाली मनानी
           हे कमला

 

एक फुसफुसाहट

धीमे से कहीं कुछ सरसराता है
मीठी सी एक फुसफुसाहट तिर जाती है
एक चिकनी सी लिजलिजाहट
स्नेह का रूप धार माथे पर हाथ रख जाती है
अहा कितने दुख सह रहा है
उफ कितनी तकलीफ में है
बिचारा गैरों का किया भुगत रहा है
किस कारण यों सारा जीवन मरता है
कहीं से एक आवाज़ कह जाती है
चुप नहीं रहती कभी भी
जब भी मौका मिला गुनगुना जाती है
हारना जैसे जानती नहीं
कर चुका हूँ इनकार कितनी बार
पर एक भूखे सियार सी
उजड़े दरख्त पर रहने वाली
स्व मुक्ति को तरसती छटपटाती
काले कोसों की सज़ा पायी हुई
एक सड़ गल रही चुड़ैल सी
निरन्तर पीछा करती जाती है
अपनी भूख से बिलबिलाती
खाने को एक शिकार ढूँढती जाती है
जो खाने पायी या ख़ुद जैसा बना पायी
आबादी बढ़ेगी अपनी
साम्राज्य फैलेगा अपना
हरा कर कमजोर सी
बड़ी भली सी बनने वाली अच्छाई को
जो बस खड़ी है लिए सहारा
फ़क्त कुछ उसूलों का
जीत हमारी होगी
एैसा सोचती मन के लड्डू फोड़ती जाती है
इसलिए हमेशा कहती जाती है
भूलती नहीं ध्यान मेरा
सतत परिश्रम करती जाती है
क्या जानती है उस एक चोर को
जो शायद मन मेरे बस रहा है
कि जब से कि जब मैं उसे जानता भी न था
जगाना चाहती है उसको
या यों ही अँधेरे में तीर चलाती जाती है
शायद बूझ पाती है
आदमी का मन
उसकी छिपी कामजोरियाँ
समझदार है माना
पर गलती पर है
डोरे फेंके हैं उस पर
जो रूप से है परे
जाल डाला है उस जल में
कि जिसमें मीन नहीं बसती
व्यर्थ है उसका परिश्रम
कभी कभी जी चाहता है
बतला दूँ उसको
किन्तु मैं नहीं चाहता
कि वह आवाज़ इस सच को जाने
छोड़ मेरे कानों में फुसफुसाना
वो ढूँढ लेगी किसी और को
और यह तो मुझे भी पसन्द नहीं
कि बढ़े उनकी आबादी
जिनसे मेरी प्रतिद्वन्दिता ठहरी
क्योंकि अच्छा लगता है
जब बढ़ता है कुल गोत्र अपना
सरसराने दो उस आवाज़ को
नष्ट करने दो उसे उसका समय
कि उसकी हार में ही हमारी जीत है
मानवता की जीत है

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