अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

 

 

 

दीपावली महोत्सव
२००४

दिये जलाओ
संकलन

तुम दीवाली बनकर

Ñ1

1
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछुड़े हृदय मिलाऊँगा
1
सूनी है माँग निशा की चंदा उगा नहीं
हर द्वार पड़ा खामोश सबेरा रूठ गया
है गगन विकल आ गया सितारों का पतझर
तम ऐसा है कि उजाले का दिल टूट गया
1
तुम जाओ घर घर दीपक बनकर मुस्काओ
मैं भाल–भाल पर कुंकुम बन लग जाऊँगा
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछुड़े हृदय मिलाऊँगा
1
कर रहा नृत्य विध्वंस सृजन के थके चरण
संस्कृति की इति हो रही क्रुद्ध हैं दुर्वासा
बिक रही द्रौपदी नग्न खड़ी चौराहे पर
पढ रहा किन्तु साहित्य सितारो की भाषा
1
तुम गाकर दीपक राग जगा दो मुर्दों को
मैं जीवित को जीने का अर्थ बताऊँगा
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछुड़े हृदय मिलाऊँगा
1
इस कदर बढ रही है बेबसी बहारों की
फूलों का मुसकाना तक मना हो गया है
इस तरह हो रही है पशुता की पशु क्रीड़ा
लगता है दुनिया से इंसान खो गया है
1
तुम जाओ भटकों को रास्ता बता आओ
मैं इतिहासों को नये सफे दे जाऊँगा
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछुड़े हृदय मिलाऊँगा
1
मैं देख रहा नन्दन सी चन्दन बगिया में
रक्त के बीज फिर बोने की तैयारी है
मैं देख रहा परिमल–पराग की छाया में
उडकर आ बैठी फिर कोई चिनगारी है
1
पीने को यह सब आग बनो यदि तुम सावन
मैं तलवारों से मेघ–मल्हार गवाऊँगा
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछुड़े हृदय मिलाऊँगा
1
— गोपालदास नीरज

 

मुझे भी है दीवाली मनानी

मुझे भी है दीवाली मनानी
फोड़ने हैं बम ढेर सारे
जलानी हैं चरखियाँ रंगों भरीं
छोटे बड़े साँपों की डिब्बियाँ हैं लानी
ऊँचे बाँस पर कंदील है लगानी
मुझे भी है दीवाली मनानी दीपोंवाली

पर साल जैसी कुंकुमों की रौशनी
वे झूलते नीले सुनहले आकाशदीप
वो शकुंतला की चाची जैसी रंगोली
जो देखी हमेशा औरों के घर
मुझे भी है अपने घर लानी
मुझे भी है दीवाली मनानी दीपोंवाली

ख़रीदनी है एक पोशाक नयी
ख़रीदने हैं गुड़ के हाथी और घोड़े
सजानी हैं द्वारे मुंडेरे दियों की कतारें
लाना है मेवों से भरा एक बक्सा
फिर संग सबके साथ हँस हँस
मुझे भी है दीवाली मनानी दीपोंवाली

घर मेरे भी चौक पुजे
पधरवायें जाएँ सारे देवी देवता
जमे आसन नवग्रहों का
भर घरिया माँगूं असीस उन सबका
जगें सरस्वती जगें लक्ष्मी
कुछ ऐसी ही
मुझे भी है दीवाली मनानी दीपोंवाली

गुड्डू मुन्ना रवि राजेश
गीता संगीता कान्ति और कुन्ती
सब मेरे द्वार इकठ्ठा हों
मिल कर दागें लम्बे लम्बे रॉकेट
और खाते जाएँ बालूशाही ढेर सारी
खाते पीते
मुझे भी है दीवाली मनानी दीपोंवाली

माँ देखो ना गट्टू ने बम फोड़ा
देखो ना सजता कितना घर उन सबका
हर चेहरे पर कितनी हँसी है खिली
देखो ना क्या खूब फुलझड़ी चली
सुनती हो ना दे दो ना कुछ पैसे
ला दो पटाखे
मुझे भी है दीवाली मनानी दीपोंवाली

तुम्ही तो कहतीं थीं
जो हो अँधेरा द्वार पर
कभी श्री लक्ष्मी आतीं नहीं
फिर किस कारण मुझको हो बहलाती
यह क्या देती हो बस रुपये पांच
कैसे मनेगी माँ इतने में दीवाली
मुझे भी है मनानी दीवाली दीपोंवाली

एक दिन खुशी का
मुझे माँ बाबा दो ना
कह सकूँ
मैंने भी कभी मनायी थी दीवाली
रूठे बच्चे का लाड़ लड़ा लो मना लो
समझो न माँ
मुझे भी है दीवाली मनानी
और फोड़ने हैं बम ढेर सारे
मुझे भी है दीवाली मनानी दीपोंवाली

—ऋचा शर्मा

     

 

 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter