अनुभूति में ऋचा शर्मा
की रचनाएँ-
छंदमुक्त
में-
अनन्त यात्रा
एक फुसफुसाहट
दीवार और दरवाज़ा
भय
खाली आँखें
मेरे सपने
मुझे लगता है
रोज़ नयी शुरुआत
सुनो पद्मा
स्वर मेरा
सुन रानी सुन
हर बात नयी
संकलन में-
ज्योतिपर्व–
दादी माँ का संदेशा
दिये जलाओ–
मुझे भी है दिवाली मनानी
हे कमला
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स्वर
मेरा
स्वर मेरा विद्रोही है
जन्म से बागी हूँ मैं
दिखला कर ठेंगा प्रकृति को
नहीं बनी एक स्त्री
अपितु एक मानव हूँ मैं
हाँ जन्म से बागी हूँ मैं
कन्या जन्म लिया धरती पर
लिया नहीं माता का कुछ भी
स्त्री होना मेरी विवशता सही
अन्यथा नहीं स्त्री का कुछ भी
धरा रूप पिता का मैंने
अधिकार गहे पिता के
स्थान लिया पुत्र का
और संबल मुझ में पुरूष सा
हाँ स्वर मेरा विद्रोही हैं
जन्म से बागी हूँ मैं
अपनाए नहीं कभी वो रिवाज़
जो स्त्री बना पाते मुझको
ना चाही दर्जा ए दोयम की धाती
स्वीकार कभी न कर सका
एक टूटी फूटी विरासत
जो बच गया सम्मान से
वो मेरा हैं मेरे लिए हैं
जो छोड़ दिया फेंक दिया
वो अनादृत अस्पृश्य मेरे लिए
नहीं किया कभी आदर उसका
हाँ स्वर मेरा विद्रोही हैं
जन्म से बागी हूँ मैं
मुझे चाहिए पूरा सम्मान
चाह नहीं आधे अधूरे की
देना ही है तो दो मुझको
सम्पूर्ण तथा साधिकार
किंचित मात्र भी काट कपट नहीं
नहीं हूँ कम किसी से
मानव हूँ मानव से कम
कुछ भी न स्वीकार करूँगा
मेरा स्त्रीत्व मेरी कमजोरी नहीं
यह मिला हैं उपहार मुझे
दिया हैं उसी प्रकृति ने
जिसके नित उपभोग से
हुए आज तुम इस लायक
के कर सको विभाजन
स्वयं अपनी जाति का
भूले हो मत दम्भ करो
जो मैं नहीं तो तुम भी नहीं
मेरे बिना अस्तित्व तुम्हारा
कदापि संभव नहीं
कोई भी स्वयंभू नहीं
उतरो सिंहासन से
हाँ, मेरा भी स्थान वही
अन्यथा मैं प्रस्तुत नहीं
साथ देने को बाध्य तुम्हारा
रक्खो तुम शक्ति अपनी
मैं अपनी दिखलाऊँगा
लड़ कर जोर जबर कर
स्थान अपना पा ही जाऊँगा
हाँ स्वर मेरा विद्रोही है
जन्म से बागी हूँ मैं
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