अनुभूति में ऋचा शर्मा
की रचनाएँ-
छंदमुक्त
में-
अनन्त यात्रा
एक फुसफुसाहट
दीवार और दरवाज़ा
भय
खाली आँखें
मेरे सपने
मुझे लगता है
रोज़ नयी शुरुआत
सुनो पद्मा
स्वर मेरा
सुन रानी सुन
हर बात नयी
संकलन में-
ज्योतिपर्व–
दादी माँ का संदेशा
दिये जलाओ–
मुझे भी है दिवाली मनानी
हे कमला
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दीवार और
दरवाजा
पत्थर की दीवारों में
सब्ज़ रंग का दरवाजा
कैसा लगता है
उजड़ी हुई शै का रह गया
हरा–भरा हिस्सा या
सूखी बंजर धरती का
छूट रहा नन्हा अंकुर
किसी सख्त दिल का
नरम कोना
मजबूत दीवार की
छिपी दरार सा
जाने अनजाने रह गये
लटकते सूत सा
कैसा लगता है
हमेशा पूरे होने वाले
पर अचानक अधूरे
रह गये
उस भूल चुके काम के
हिस्से सा
लगता है ना
तुम्हें कैसा लगता है
याद नहीं आती उसे देखकर
कोई रूपा या कोई बाँका
जिनकी अधूरी रह गयी
दास्तान के प्रतीक
खण्डहरों के बीच खड़े होकर
उनकी रूमानियत की याद सा
लगता है ना वैसा
कभी किसी कमजोरी
कभी किसी भूल
किसी उपेक्षा
न संभव हो ऐसे खयाल सा
तो क्या ये गलत है
नहीं होना चाहिए ऐसा
पत्थर की दीवार में
हरे रंग का दरवाजा
हरदम चुभता है
ऐसे जैसे कोई दोबयानी
एक चिकनी सतह पर
लुढ़कता हुआ गोल सिक्का
रूकता ही नहीं
जी चाहता है काट दूँ
सिक्के के दोनों पहलू
अलग कर दूँ
दूर हो जाए ये अन्तरविरोध
पर क्या ये संभव है
है आपके पास कोई समाधान
जिससे इसका हल निकले
फिर न हो ऐसा
न हो सब्ज़ रंग का द्वार
या कि पत्थर की दीवार
क्योंकि अच्छा नहीं लगता
कुछ अच्छा नहीं लगता
जाने कैसा लगता है
क्या जाने कैसा लगता है |