श्रमिक-शक्ति
बढ़ें पग देख गगन में अर्क।
नहीं है किंचित मन में दर्प।।
होय नित नई भोर से शाम।
श्रमिक कब करता है विश्राम?
पसीना से होता अभिषेक।
पड़ें हाथों पाँवों में ठेक।।
श्रमिक कब करता है अभिमान?
त्रस्त हो फिर भी ओठों गान।।
तोड़कर निशि वासर चट्टान।
हृदय है मोम, नहीं पाषाण।।
प्रगति की श्रमिक-शक्ति आलंब।
नहीं हम रह जाते निरलंब।।
कभी पथ आता है तम तेज़।
करें उसको श्रम से निस्तेज।।
व्योम में प्रस्फुट होय मयंक।
छटा जब फैले भू के अंक।।
श्रमिक तब लौटें होकर क्लांत।
पड़ें निश्चल निद्रा में शांत।।
नींद में डाल सकें नहिं विघ्न।
रूपहले, रम्य कहाँ बन स्वप्न।।
हाय! पर जीवन बड़ा अराल।
कुंडली मार बैठ धन-व्याल।।
क्लांति को करते हैं वे सद्य।
बैठ बीबी-बच्चों के मध्य।।
धर्म है कर्म, श्रमिक उपनाम।
दिए हैं जिसने बहु आयाम।।
धवल नित दमके ताजमहल।
खड़े बहु नद्य-बांध निश्चल।।
बहाएँ खून-पसीना मुफ़्त।
उन्हीं के नाम हुए हैं लुप्त।।
9 अक्तूबर 2006 |