जा रहा था एक दिन
जा रहा था एक दिन मैं राह में कुछ
सोचता।
माँ भारती के दुश्मनों को मन ही मन में कोसता।।
जीने न देते आदमी को, दुष्ट भी शकून से।
खेलते हैं होलियाँ भी आदमी के खून से।।
कोई फ़रिश्ता भी मिले, मैं जा रहा यह सोचते।
अस्मत लुटेरे, धन लुटेरे, कुछ मिले ऐंठे हुए।
कुछ मुखौटे भी लगा कर भेड़िए बैठे हुए।।
कोई मिले इंसान भी, मैं जा रहा यह खोजता।
दाग वर्दी में लगे हैं, दाग चेहरे पर लगे।
अंगुली उठी है न्याय पर भी दर्द अब किससे कहे?
न्यायी मिले इक हंस जैसा, मैं जा रहा यह सोचते।
9 अक्तूबर 2006 |