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मन जूही-सा
मन जूही-सा
खिला मेरा तन, महका जैसे चंदन
करें गीत भी मेरे मीत का,
गा-गा कर अभिनंदन
जब से हृदय
बसाया उनको, रहती खोई-खोई।
वे क्या जानो रोज़ विरह में, कितनी मैं हूँ रोई
अभी याद है अमराई का,
पहला-पहला चुंबन।
मन जूही-सा खिला मेरा तन,
महका जैसे चंदन।
दिल में बढ़ती
आग विरह की, जब-जब पड़ें फुहारें।
वे क्या जानें कैसे बीतीं, ये मधुमास बहारें।
अभी याद है पहनाए जब,
इन हाथों में कंगन।
मन जूही-सा खिला मेरा तन,
महका जैसे चंदन।
मैं उनके जीवन
की कविता वे कविता के छंद।
मैं इठलाती कली नवेली वे रसिया हैं भृंग।।
अभी याद है प्रथम मिलन का
दो बाहों का बंधन।
मन जूही-सा खिला मेरा तन,
महका जैसे चंदन।
२१ दिसंबर २००९ |