अनुभूति में
संतोष कुमार सिंह की रचनाएँ —
नए गीत
चलें यहाँ से दूर
जग यूँ दीख रहा
फिर कैसे दूरी हो पाए
मन जुही सा
रूठ गई मुस्कान गीतों
में
अपना छोटा गाँव रे
इस देश को उबारें
ऐसी हवा चले
गाँव की यादें
जा रहा था एक दिन
धरती स्वर्ग दिखाई दे
नारी जागरण गीत
मीत मेरे
ये बादल क्यों रूठे हैं
श्रमिक-शक्ति
सोचते ही सोचते
शिशु गीतों में-
डॉक्टर बंदर
भालू
सूरज
हिरण
संकलन में
ममतामयी-माँ |
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मन जूही-सा
मन जूही-सा
खिला मेरा तन, महका जैसे चंदन
करें गीत भी मेरे मीत का,
गा-गा कर अभिनंदन
जब से हृदय
बसाया उनको, रहती खोई-खोई।
वे क्या जानो रोज़ विरह में, कितनी मैं हूँ रोई
अभी याद है अमराई का,
पहला-पहला चुंबन।
मन जूही-सा खिला मेरा तन,
महका जैसे चंदन।
दिल में बढ़ती
आग विरह की, जब-जब पड़ें फुहारें।
वे क्या जानें कैसे बीतीं, ये मधुमास बहारें।
अभी याद है पहनाए जब,
इन हाथों में कंगन।
मन जूही-सा खिला मेरा तन,
महका जैसे चंदन।
मैं उनके जीवन
की कविता वे कविता के छंद।
मैं इठलाती कली नवेली वे रसिया हैं भृंग।।
अभी याद है प्रथम मिलन का
दो बाहों का बंधन।
मन जूही-सा खिला मेरा तन,
महका जैसे चंदन।
२१ दिसंबर २००९ |