शब्द के संचरण
में
मैं अरुण अभियान के अन्तिम चरण
में हूँ।
शब्द के कल्पान्त-व्यापी
संचरण में हूँ।
सूर्य की
शिखरान्त यात्रा पर चला हूँ मैं,
एक रक्षा-चक्र में नख-शिख ढला हूँ मैं,
मैं त्रिलोचन-स्वप्नवाही
जागरण में हूँ।
शशि-वलय
तोड़ा प्रखर गति की चपलता ने,
तृप्ति दे-दी सोम-रस डूबी तरलता ने,
मैं प्रणय से, प्रणव के
हस्तान्तरण में हूँ।
राग-रंजित
मन धुला आकाश-गंगा में,
घुल गया हिमखण्ड-सा संत्रास गंगा में,
मैं महासंक्रान्ति-क्षण के
सन्तरण में हूँ।
काल की
आद्यन्त गाथा, शून्य गाता है,
प्राण-परिचित नाद मुरली-सी बजाता है,
मैं अनादि-अनन्त लय के
व्याकरण में हूँ।
गीत मेरे
गूँजते-मिलते ध्रुवान्तों में,
मैं मुखर हूँ, ज्वालमण्डित समासान्तों में,
मैं समूची सृष्टि के
रूपान्तरण में हूँ।
४ फरवरी २०१३