देने को केवल
परिचय है
मैं ऐसा दानी हूँ, जिस-पर देने को केवल परिचय है।
मैं संयम के कारा-गृह से भागा हुआ एक बन्दी हूँ,
और, दूसरी ओर काम का जाना-माना प्रतिद्वन्दी हूँ,
मुझ को प्यार शरण दे बैठा, मन की जाने किस उलझन में,
बीत रहे दिन रूपमहल के इस गुलशन में, उस गुलशन में,
यह जग राजकुँवर कहता है,
पर, जीवन उलटा बहता है,
कठिन भूमिका मुझे मिली है, किन्तु सफल मेरा अभिनय है।
एक चोट थी, जो दर्पण को घर से निष्कासित कर बैठी,
एक चोट, दरके दर्पण से आनन उद्भाषित कर बैठी,
कीमत घटती-बढ़ती रहती, रंक या-कि सम्राट सभी की,
लेकिन मैं हूँ, कीमत जिस की निर्धारित हो चुकी कभी की,
अपना भी परिवार बड़ा था,
सत्ता का थोड़ा झगड़ा था,
राजी और खुशी से मुझ को बँटवारे में मिला हृदय है।
दुर्दिन ने वह चाल चली है, साँप मरे औ‘ लकुटि न टूटे,
जो मुझ-बिन आकुल रहते थे, एक-एक कर साथी छूटे,
सात समन्दर पार किये हैं, पर ओझल है अभी किनारा,
एक और सागर बन बैठा, प्राणवान सन्तरण बिचारा,
अथ-इति के सुनसान भवन में,
आँधी-पानी वाले क्षण में,
देख रहा हूँ साहस मेरा, कमसिन होकर भी निर्भय है।
४ फरवरी २०१३