अकथ्य को कहने
का अभ्यास
मैं अकथ्य को
कहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
नए कोर्स की कठिन परीक्षा पास कर रहा हूँ।
हूक उठे मन में
तो उस पर काबू पा लेता,
यादें तंग करें तो आँखों को रिसने देता,
लोगों से मिलता हूँ मस्ती की मुद्राओं में
भीतर पूरा कवि हूँ, बाहर
पूरा अभिनेता,
जल में हिम-सा
बहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
आँसू पी न सकूँ, निर्जल-उपवास कर रहा हूँ।
निपट अकेले
रोने से जी हल्का होता है,
कोई नहीं पूछने-वाला तू क्यों रोता है,
ये, वे पल हैं, जो नितान्त मेरे-अपने पल हैं
यहाँ मौन ही अब मेरी
कविता का श्रोता है,
घर से बाहर
रहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
ऐसा लगता है, जैसे कुछ खास कर रहा हूँ।
दीवारों में
रहता हूँ, घर में वनचारी हूँ,
अब मैं सचमुच ऋषि कहलाने का अधिकारी हूँ,
मेरे सर-पर-का बोझा जो लूट ले गया है
मैं अपने अंतरतम से
उसका आभारी हूँ,
दुख को, सुख से
सहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
सागर-डूबी धरती को आकाश कर रहा हूँ।
७ मार्च २०११