सावन में
मैं अपने ही अधर
चूम लूँ दरपन में
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में
अधरों पर धर गया
बाँसुरी
लीलाधर बादल कोई
मैं जितना जागा जागा
संसृति उतनी सोयी सोयी
बिजली कौंधे आग
लगे चंदन वन में
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में
आँखों की झील
में तैरता
सपना एक शिकारे सा
तन की घाटी में बजता है
भीगा मन इकतारे सा
प्राणों में
साकेत प्राण वृंदावन में
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में
खारे सागर में
उभरी
तल तक डूबी सरिताएँ
महा मौन में अनुगुंजित
आदिम यौवन की कविताएँ
होना है नौका
विहार जल प्लावन में
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में
७ मार्च २०११