मैं जीवन हूँ
वह नहीं, कि मैं जो बाहर हूँ,
वह नहीं, कि मैं जो भीतर हूँ,
फिर क्या हूँ मैं, इस का कोई संज्ञान नहीं।
कल्पना नहीं, अनुमान नहीं।
शून्य में एक अनुगुंजन-सा रहता हूँ मैं,
सूरज में मानसरोवर-सा बहता हूँ मैं,
मैं तन से, मन का अन्तर हूँ,
अक्षत यौवन, मन्वन्तर हूँ,
संसृति में मुझ-जैसा कोई गतिमान नहीं।
मेरा, कोई प्रतिमान नहीं।
सरसिज में बन्दी, एक स्वप्न जीता हूँ मैं,
अश्रु से उतारी-गयी सुरा पीता हूँ मैं,
मैं एक लहर का, सागर हूँ,
शिखरों पर घाटी का स्वर हूँ,
मुझ पर चल पाता विधि का एक विधान नहीं।
मैं, मात्र एक म्रियमाण नहीं।
भोग से, योग में गये मिलन का क्षण हूँ मैं,
मधु से, माधव हो गये सृजन का क्षण हूँ मैं,
मैं क्षर से जन्मा, अक्षर हूँ,
कल्पान्त-मुक्त कालान्तर हूँ,
मेरे पथ में, इति का कोई व्यवधान नहीं।
मैं, जीवन हूँ, निर्वाण नहीं।
४ फरवरी २०१३