अब की बरखा बड़ी अनूठी
कोने-कोने वीर बहूटी
मखमल-मखमल खुली हथेली,
छूँछी झोली, गाँठ न धेली,
भीगी कथरी, खटिया टूटी
कोने-कोने वीर बहूटी
औचक पेट-बिजुरिया कौंधे,
ढूँढू रोटी, नमक-करौंदे,
रिसती लुटिया, गगरी फूटी
कोने-कोने वीर बहूटी
चल रे! उस बरगद के नीचे
बिरथा आँगन कीच उलीचे
किस्मत निकली स्याह कलूटी
कोने-कोने वीर बहूटी
काया जर्जर, पाँव बिवाई
चले उमर-भर कोस अढ़ाई
उँगली में घुड़नाल अंगूठी
कोने-कोने वीर बहूटी
कुछ भी तो गूंगापन गाए,
बोल न उचरे, जी घबराए
देह कि अब छूटी, तब छूटी
कोने-कोने वीर बहूटी
- रामस्वरूप सिंदूर
20 अक्तूबर 2006
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