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वर्षा महोत्सव

अब की बरखा बड़ी अनूठी
कोने-कोने वीर बहूटी

मखमल-मखमल खुली हथेली,
छूँछी झोली, गाँठ न धेली,
भीगी कथरी, खटिया टूटी
कोने-कोने वीर बहूटी

औचक पेट-बिजुरिया कौंधे,
ढूँढू रोटी, नमक-करौंदे,
रिसती लुटिया, गगरी फूटी
कोने-कोने वीर बहूटी

चल रे! उस बरगद के नीचे
बिरथा आँगन कीच उलीचे
किस्मत निकली स्याह कलूटी
कोने-कोने वीर बहूटी

काया जर्जर, पाँव बिवाई
चले उमर-भर कोस अढ़ाई
उँगली में घुड़नाल अंगूठी
कोने-कोने वीर बहूटी

कुछ भी तो गूंगापन गाए,
बोल न उचरे, जी घबराए
देह कि अब छूटी, तब छूटी
कोने-कोने वीर बहूटी

- रामस्वरूप सिंदूर
20  अक्तूबर 2006

  

बादल घिर आए

इतने सारे काम पड़े हैं
छत पर धुले हुए कपड़े हैं
बादल घिर आए
(अचानक बादल घिर आए)

खिड़की खुली हुई है बाहर की
चीज़ें चीख़ रहीं आँगन भर की
ताव तेज़ है मुई अँगीठी का
हवा न कुछ अनहोनी कर जाए

बच्चे लौटे नहीं मदरसे से
कड़क रही है बिजली अरसे से
रखना हुआ पटकना चीज़ों का
पाँव छटंकी ऐसे घबराए

आँखों में नीली कमीज़ काँपी
औऽर भर गया शंकाओं से जी
कमरे में आ, भीगी चिड़िया ने
अपने गीले पंख फड़फड़ाए
कितने-कितने बादल घिर आए

- रमेश रंजक
20  अक्तूबर 2006

 

 

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