अनुभूति में
विजय ठाकुर की रचनाएँ-
हास्य
व्यंग्य में—
अड़बड सड़बड़
गुफ्तगू वायरस इश्क से
मेघदूत और ईमेल
स्वर्ग का धरतीकरण
छंदमुक्त में—
अपना कोना
काहे का रोना
कैक्टसों की बदली
तेरी तस्वीर
तीजा पग
दे सको तो
पीछा
प्रश्न
बचपन जिंदा है
मवाद
रेखा
वर्तनी
छोटी कविताओं में-
चकमा
जनता का प्यार
समानता
संकलन में-
गुच्छे भर अमलतास–
ग्रीष्म आया
तुम्हें नमन–
आवाहन
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समानता
समानता है, यकीनन है, मुझमें और तुझमें
लेकिन नारी होने का नहीं बल्कि
तुम लुटती हो घर में चुपचाप और
मैं नोची जाती हूँ दफ़्तरों में खामोशी से
जनता का
प्यार
चुनाव क्षेत्र में मंत्री जी हैं पधारे,
हाथ जोड़े खीसें निपोरे
हो गए हैं खड़े,
बिल्कुल कहो ना प्यार है की मुद्रा में
कहते हैं, देखिये कैसे खींच लाई है मुझे सिद्दत से
इस क्षेत्र का प्यार, जनता जर्नादन का दुलार
वर्ना, पाँच साल बाद भी
कोई किसी को याद करता है!
चकमा
महानगरों की भीड़ में
कुलबुलाते हुए
सबको धकियाते हुए
अपना सर्वस्व पीछे छोड़
आगे रहने की होड़
बना देती है खुद को
भीड़ का एक अनज़ाना चेहरा
भीड़ जो बढ़ती ही जाए
सुरसा के मुख की तरह
भीड़ से अलग यदि दिखना है
तो दीजिये चकमा सुरसा को
वर्ना सुरसा ख़ुद आपको निगल जाएगी
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